ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

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Tuesday, May 4, 2010

आप ही कहो,क्या सच है?

औरतें भी इन्सान जैसी हो गईं है,
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!

निरुपमा ने ये शायद  सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।

माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।

खिलखाती खेलती थी बेटी मेरी,
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है। 

Wednesday, April 7, 2010

वफ़ा की नुमाइश!



कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|

जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों  न जज़बातो, का सौदा करे कोई!

खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई| 


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आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में  और भी Relevant हो जाता  है! 

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,

गर नही!तो,

’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

Friday, March 26, 2010

कातिल की बात !

मैं कभी करता नहीं दिल की भी बात,
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?

दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात। 

ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!

कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?

लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।

Sunday, January 24, 2010

मजाक सच में

हालात से लोग मजबूर हो गये है,
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.

इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है

रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है

हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.



Wednesday, December 2, 2009

तीरगी का सच!

Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :

इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
 मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.


मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.


चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.


लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से. 


और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:



ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
 पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.


दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.





Wednesday, October 28, 2009

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,


गर नही!तो,


’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

Tuesday, May 12, 2009

झूंठ के पावों के निशान!



वो देखो दौड़ के मंज़िल पे जा पहुँचा,
कौन कहता है के,'झूंठ के पावं' नही होते.

मैं चीख चीख के सब को बताता रह गया,
फिर ना कहना,'दीवारों के भी कान' होते हैं.

सारे हाक़िम लपक कर उसके पावं छू आए,
तब मैं जान गया,'क़ानून के हाथ' लंबे हैं.