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Sunday, March 27, 2011

"मुकम्मल सुकूँ"!


चुन चुन के करता हूँ, 
मैं तारीफ़ें अपने मकबरे की ,
मर गया हूँ?
क्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!

गुज़रता हूँ,रोज़,
सिम्ते गुलशन से,
गुल नहीं,
बागवाँ नहीं,
तितलियाँ फ़िर भी,
यूँ ही आदतन,
तलाशे बहार में हैं!

न तू है,
न तेरी याद ही, बाकी कहीं,
फ़िर भी मैं हूँ,के,
तन्हा या फ़िर,
घिरा सा भीड में,
अपनी तन्हाई या तेरी यादों की!

मर के भी इंसान को,
मिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा, 
 मुकम्मल सुकूँ!

गर सुने 'पुर सुकूँ' हो कर कोई,
तो सुनाऊँ दास्ताँ अपनी कभी,
पर कहाँ मिलता अब,
एक लम्हा,एक घडी,
"मुकम्मल सुकूँ"! 

Wednesday, March 16, 2011

मौसम-ए-बहार और अश्क!


                                                      


















आम के बौर की खुशबू,उसे समझाऊँ कैसे,
शहर में रहता है उसे बाग तक लाऊँ कैसे।

अक्सर वो यूँही मेरी बात से डर जाता है,
बडा मासूम है,अहदे जहाँ सिखाऊँ कैसे।

मेरी फ़ितरत ही अज़ब है हवा का झोका हूँ,
वो हसीं ख्याब है मैं उसको  जगाऊँ कैसे।

  दस्तूर,समझदारी, इल्म, किताबें और उसूल,
 दिल मगर नाँदा है,दिल को समझाऊँ कैसे।

 आँखें उसकी मोहब्बत से भरी रहती हैं,
 खारा अश्क हूँ, उस आँख में आऊँ कैसे।


Saturday, March 12, 2011

अश्रु अंजलि!(जापान को)





जब भी कोशिश करता हूँ,
गर्व करने की,
कि मैं इंसान हूँ!

एक थपेडा,
एक तमाचा कुदरत का,
हल्के से ही सही,
कह के जाता है,
कि "मैं" बलवान हूँ!

हर समय ये याद रखना,
"मैं",
वख्त हूँ कभी,
कुदरत कभी,
इंसानी फ़ितरत कभी,
और कभी आखिर में
"मै" ही भगवान हूँ!

सब तेरे मंसूबे,
तकनीकें
सलाहियत तेरी,
बस टिकी है,
एक घुरी पे, 
घूमती है जिसके सहारे
तेरी दुनिया,
और ज़मीं,

इस ज़मीं के पार 
जब कुछ भी नही,
शून्य और अस्तित्व के परे,
मैं ही आसमान हूँ।




Tuesday, March 1, 2011

’दाग अच्छे हैं!’


रोना किसे पसंद?
शायद छोटे बच्चे करते हो ऎसा?
आज कल के नहीं
उस समय के,
जब बच्चे का रोना सुन कर माँ,
दौड कर आती थी,
और अपने आँचल में छुपा लेती थी उसे!

अब तो शायद बच्चे भी डरते है!
रोने से!
क्या पता Baby sitter किस मूड में हो?
थप्पड ही न पडे जाये कहीं!
या फ़िर Creche की आया,
आकर मूँह में डाल जाये comforter!
(चुसनी को शायद यही कहते हैं!) 

अरे छोडिये!
मैं तो बात कर रहा था, रोने की!
और वो भी इस लिये कि,
मुझे कभी कभी या यूँ कह लीजिये,
अक्सर रोना आ जाता है!

हलाँकि मै बच्चा नहीं हूँ, 
और शायद इसी लिये मुझे ये पसंद भी नही!
पर मैं फ़िर भी रो लेता हूँ!
जब भी कोई दर्द से भरा गीत सुनूँ!
जब भी कोई,दुखी मन देखूँ,
या जब भी कभी  उदास होऊँ,
मैं रो लेता हूँ! खुल कर!

मुझे अच्छा नहीं लगता!
पर क्या क्या करूँ,
मैं तब पैदा हुआ था जब रोना अच्छा था!
वैसे ही जैसे आज कल,
"दाग" अच्छे होते है,


पर मैं जानता हूँ,
आप भी बुरा नहीं मानेगें!
चाहे आप बच्चे हों या तथाकथित बडे(!)!
क्यों कि मानव मन,
आखिरकार कोमल होता है,
बच्चे की तरह!