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Friday, December 31, 2010

गुफ़्तगू बे वजह की!



ज़रा कम कर लो,
इस लौ को,
उजाले हसीँ हैं,बहुत!
मोहब्बतें,
इम्तिहान लेती हैं
मगर! 

पहाडी दरिया का किनारा,
खूबसूरत है मगर,
फ़िसलने पत्थर पे
जानलेवा 
न हो कहीं!

मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को!मगर!

किस्मतें जब हार कर,
घुटने टिका दे,
दर्द साया बन के,
आता है तभी!



Saturday, December 25, 2010

मानवीय विवशतायें !



विवशतायें!
मौन और संवाद की,

विवशतायें,
हर्ष और अवसाद की,

विवशताये,
विवेक और प्रमाद की,

विवशतायें,
रुदन और आल्हाद की,


विवशतायें,
बेरुखी और अहसास की,

विवशतायें
म‍क्‍तूल और जल्लाद की,

विवशतायें
हिरण्कष्यप और प्रह्ललाद की,


हाय रे मानव मन,
और उसकी विवशतायें!





Tuesday, December 14, 2010

लडकियाँ और आदमी!



लडकियाँ कितनी ,
सहजता से,
बेटी से नानी बन जातीं है!


लडकियाँ आखिर,
लडकियाँ होती हैं!


शिव में ’इ’ होती है,
लडकियाँ,
वो न होतीं तो,
’शिव’ शव होते!


’जीवन’ में ’ई’,
होतीं हैं लडकियाँ
वो न होतीं तो,
वन होता जीव-’न’ न होता!
या ’जीव’ होता जीव-न, न होता!


और ’आदमी’ में भी,
’ई’ होतीं हैं,यही लडकियाँ!


पर आदमी! आदमी ही होता है!
और आदमी लडता रह जाता है,
अपने इंसान और हैवानियत के,
मसलों से!
आखिर तक!


फ़िर भी कहता है,
आदमी!
क्यों होती है?
ये ’लडकियाँ’!


हालाकि,
न हों उसके जीवन में,
तो रोता है!
ये आदमी!


है न कितना अजीब ये,
आदमी!



Thursday, December 9, 2010

श्श्श्श्श्श्श्श्श! किसी से न कहना!



मैने सोच लिया है,
अब सच के बारे में कोई बात नहीं करुंगा,
खास तौर से मैं, 
अपने आपसे!

वैसे भी!
सोये हुये भिखारी के घाव पर,
भिनभिनाती मक्खियों की तरह,
कहाँ सुकून से रहने देती है,
रोज़ टीवी से सीधे मेरे ज़ेहेन में ठूंसी जाने वाली खबरें!
कैसे कोई सोच सकता है? और वो भी,
सच के बारे मैं!

चौल की पतली दीवार से,
छन छन कर आने वाली,
बूढे मियाँ बीवी की रोज़ की झिकझिक की तरह,
हिंसा की सूचनायें,जो मेरा समाज
बिना मेरी इज़ाजत के प्रसारित करता रहता है,
मुझे ख्याब तो क्या? 
एक पुरसुकून नींद भी नहीं लेने देतीं!
क्या होगा?
बचपन के सपनो का!

तथा कथित महानायको की भीड,
और  सुरसा की तरह मूँह बाये
हमारी आकाक्षाओं की अट्टालिकायें,
उस पर यथार्थ की दलदली धरातल,
एक साथ जैसे एक साजिश के तहत,
लेकर जा रही है बौने इंसान को
और भी नीचे!
शायद पाताल के भी पार! 

अब सच के बारे में,
मैं कोई बात नहीं करुंगा!
किसी से भी!
खुद अपने आप से भी नहीं!



Thursday, December 2, 2010

गुमशुदा की तलाश!

जिस ने सुख दुख देखा हो।

माटी मे जो खेला हो,
बुरा भला भी झेला हो।

सिर्फ़ गुलाब न हो,छाँटें 
झोली में हो कुछ काँटे। 

अनुभव की वो बात करे,
कोरा ज्ञान नहीं बाँटे।

मेले बीच अकेला हो,
ज्ञानी होकर चेला हो।

हर पल जिसने जीया हो,
अमिय,हलाहल पीया हो।

पौधा एक लगाया हो,
अतिथि देख हर्षाया हो।

डाली कोई न काटी हो,
मुस्काने हीं बाँटी हो।

सच से जो न मुकरा हो,
भरी तिजोरी फ़ुकरा हो।

मेहनत से ही कमाता हो,
खुद पे न इतराता हो।

अधिक नहीं वो खाता हो
दुर्बल को न सताता हो ।

थोडी दारु पीता हो,
पर इसी लिये न जीता हो।

अपने मान पे मरता हो,
इज़्ज़त सबकी करता हो।

ईश्वर का अनुरागी हो,
सब धर्मों से बागी हो।

हर स्त्री का मान करें
तुलसी उवाच मन में न धरे।

(डोल,गंवार........)

भाई को पहचाने जो,
दे न उसको ताने जो।

पैसे पे न मरता हो,
बातें सच्ची करता हो।

भला बुरा पहचाने जो,
मन ही की न माने जो।

कभी नही शर्माता हो,
लालच से घबराता हो।

ऐसा एक मनुज ढूँडो,
अग्रज या अनुज ढूँडो।

खुद पर ज़रा नज़र डालो,
आस पास देखो भालो।

ऐसा गर इंसान मिले,
मानो तुम भगवान मिलें!

उसको दोस्त बना लेना,
मीत समझ अपना लेना।

जीवन में सुख पाओगे,
कभी नहीं पछताओगे।