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Tuesday, October 12, 2010

ताल्लुकातों की धुंध!



पता नहीं क्यों,
जब भी मैं किसी से मिलता हूं,
अपना या बेगाना,
मुझे अपना सा लगता है!


और अपने अंदाज़ में


मैं खिल जाता हूं,
जैसे सर्दी की धूप,


मैं लिपट जाता हूं,
जैसे जाडे में लिहाफ़,


मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,


मैं याद आता हूं
जैसे भूला हिसाब,
(पांच रुप्पईया, बारह आना)  




मुझे कोई दिक्कत नहीं,
अपने इस तरीके से लेकिन,
पर अब सोचता हूं,
तो लगता है,


लोग हैरान ओ परेशान हो जाते हैं,
इतनी बेतकक्लुफ़ी देखकर,


फ़िर मुझे लगता है,
शायद गलती मेरी ही है,
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की,


लोग ताल्लुकातों की धुंध में


रहना पसंद करते है,


शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में


जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला 


जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,


है कौन? 



11 comments:

  1. सच कहा आपने आज कल तो किसी से खुल कर मिल भी नहीं सकते...
    बहुत खूब लिखा है आपने...

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  2. अरे वाह टिप्पणीकारों की लिस्ट में अपना नाम सबसे पहले देखकर बहुत अच्छा लगा....

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  3. चेहरे पर चेहरा लगाकर मिलते हैं लोग

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  4. मानव मन का सही विश्लेषण ... आजकल मुखौटे ही चेहरे बन गए हैं !

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  5. ये नये मिज़ाज़ का शहर जो बन गया है .... बहुत खूब लिखा है आपने ....

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  6. जब भी मिलो किसी से,
    एक नकाब ज़रूरी है,....

    kavitaa ka ye 'saar'
    bahut prabhaavit karta hai .
    a b h i v a a d a n.

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  7. Nahi,nahi...aap mat naqaab laga lena! Bhavishy me kabhi mulaaqaat hui to dar lagega!
    Ab rachana ke liye kya likhun? Rachana hameshahee khoobsoorat hoti hai!

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  8. जब भी मिलो किसी से,
    एक नकाब ज़रूरी है..
    bahut khoob..!

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  9. बहुत अच्छा लिखा है आपने...

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  10. 👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏👏

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